धर्म एवं दर्शन >> मानस और भागवत में पक्षी मानस और भागवत में पक्षीरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस और भागवत में पक्षियों के प्रसंग
संसार में जब किसी व्यक्ति को निष्पक्ष कहते हैं तो उसकी तुलना हंस से की जाती है, क्योंकि दूध और पानी को मिलाकर यदि उसके सामने रख दिया जाय तो दोनों को अलग-अलग करने की क्षमता उसमें है। किसी की निष्पक्षता की प्रशंसा यह कहकर करते हैं कि इसमें तो नीर-क्षीर विवेक की हंसवृत्ति विद्यमान है, पर आप विचार करके देखिए कि यद्यपि हंस दूध और पानी को अलग कर देता है फिर भी पक्षी शब्द उसके साथ क्यों जुड़ा हुआ है? कहते तो उसको पक्षी ही हैं, भले ही वह दूध और पानी को अलग कर देता हो! बल्कि सच्चाई यह है कि वह दूध और पानी को अलग भले ही कर दे, पर पक्षपात से रहित वह भी नहीं है। क्योंकि दूध को अलग करके जब वह दूध पी लेता है और पानी को छोड़ देता है तो दूध के प्रति उसका पक्षपात तो प्रत्यक्ष रूप से दिखायी ही देता है। इसका अभिप्राय है कि जो बड़ा निष्पक्ष दिखायी देता है, वह भी वस्तुतः पक्षी ही है। ‘श्रीरामचरितमानस’ में ये तीन शब्द कहे गये हैं –
ग्यान बिराग बिचार मराला। 1/36/7
जिनमें ज्ञान है, जिनमें वैराग्य है और जिनमें विचार है, वे वस्तुतः हंस हैं, पर वहाँ पर भी विचार करके देखें कि परमहंस, तत्त्वज्ञ या विचारक जो होगा और जब वह नित्यानित्य का विवेक दूध-पानी को अलग करने के समान करेगा, तो अन्त में वह भी नित्य को ग्रहण करेगा और अनित्य का परित्याग करेगा। इसका अभिप्राय यह है कि पक्षपात होना बुरा नहीं है। वस्तुतः पक्षपात तो व्यक्ति के व्यक्तित्व में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है, लेकिन उस पक्षपात का परिणाम क्या होता है? उस परिणाम को दृष्टि में रख करके ही पक्षी की प्रशंसा अथवा निन्दा की जाती है।
पक्षियों की जो निन्दा की जाती है, उसका एक कारण और है। अलग-अलग विचार वाले और अलग-अलग मत वाले व्यक्ति जब मिलते हैं तो सब पक्षी ही हैं और पक्षियों में विवाद प्रारम्भ हो जाता है, झगड़ा प्रारम्भ हो जाता है, लेकिन ‘रामायण’ का संकेत सूत्र यह है कि यहाँ पर पक्षियों का विवाद नहीं है, बल्कि पक्षियों का संवाद है। श्रीकाकभुशुण्डिजी भी पक्षी हैं और गरुड़जी भी पक्षी हैं, लेकिन जब दोनों मिलते हैं तो उनमें एक दिव्य संवाद होता है और संवाद किस रूप में होता है? संवाद होता है भगवान् के चरित्र के वर्णन के रूप में। इसका क्या अभिप्राय है? यदि अपने पक्ष के आग्रह में शुद्ध तर्क-वितर्क ही करें तो विवाद मिटने वाला नहीं है। जितने सिद्धान्त हैं, जितनी मान्यताएँ हैं, उनमें कुछ न कुछ भिन्नताएँ रहेंगी और परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध टकराहट भी रहेगी, लेकिन यदि विवाद को समाप्त करना चाहें तो इसका सबसे सुन्दर उपाय यह है कि भगवान् की कथा कही जाय और भगवान् की कथा सुनी जाय।
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